प्लेयर-अंनौन्स बेटल ग्राउंड्स गेम को पबजी के नाम से भी जाना जाता है, इस वीडियो गेम को सबसे पहले पीसी, आईओएस, और एक्सबॉक्स संस्करण (वर्जन) के लिए लांच किया गया था और उसके बाद, फोन के बहुत कम पॉवर वाले प्लेटफार्म से शुरुआत की गई।
पबजी गेम’ में कई तरह के हाईटेक फीचर दिए गए हैं| इस ऑनलाइन गेम में अट्रैक्टिव ग्राफिक्स, पॉवरफुल साउंड और मोशन सेंसरिंग टेक्नोलॉजी का भी इस्तेमाल किया गया है| यह एक मिशन गेम है,
इस समय बच्चों और युवाओं में ‘पबजी गेम’ काफी छाया हुआ है| दिन-रात इस गेम को खेल-खेलकर बच्चों और युवाओं को इसकी लत लग चुकी है| गूगल प्लेस्टोर से अब तक इस गेम को 50 मिलियन से भी ज्यादा बार डाउनलोड किया जा चुका है| इस आंकड़े से ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि स्मार्टफ़ोन यूजर्स के बीच इसकी कितनी लोकप्रियता है|
ऐसे खेला जाता है PUBG:
पैराशूट के जरिए 100 प्लेयर्स को एक आईलैंड पर उतारा जाता है. जहां प्लेयर्स को बंदूकें ढूंढनी पड़ती है और दुश्मनों को मारना होता है. आखिर में जो बचता है वो विनर होता है. 4 लोग ग्रुप बनाकर भी खेल सकते हैं, जो आखिर तक पहुंच गए तो सभी विनर कहलाते हैं. इस गेम को डाउनलोड करने के लिए 2 जीबी स्पेस होना जरूरी है. क्योंकि गेम फोन का काफी स्पेस लेता है.
डब्ल्यूएचओ ने इसे अब बीमारी कहा
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने इसी साल गेम खेलने की लत को मानसिक रोग की श्रेणी में शामिल किया है। इसे गेमिंग डिसऑर्डर नाम दिया गया है। शट क्लीनिक के अनुसार टेक एडिक्शन वालों में 60 फीसदी गेम्स खेलते हैंं। 20 फीसदी पोर्न साइट देखने वाले होते हैं। बाकी 20 फीसदी में सोशल मीडिया, वॉट्सएप आदि के मरीज आते हैं।
ऐसे पहचानें इसके लक्षण
डॉ अमित सचदेवा कहते हैं कि खुद का खुद पर नियंत्रण खत्म हो रहा है, गेम खेलते हैं तो खेलते ही रहते हैं। जीवन शैली में एक ही एक्टिविटी रह गई है। नुकसान की जानकारी होने के बावजूद आप खेलते रहते हैं। छह महीने से एक साल में आप ऐसा अपने बच्चे में देखते हैं तो समझें कि टेक्नोलॉजी एडिक्शन है। यह कुछ केसों में पहले भी हो सकता है।
बच्चों को हिंसक बना रही है गेम
मनोचिकित्सकों का मानना है कि इस तरह की गेम बच्चों को हिंसक बना रहीं हैं। इनका कॉन्सेप्ट ही सबको खत्म करना अपनी बादशाहत कायम करने का है। जिसका असर बच्चों के व्यवहार में साफ नजर आ रहा है। बाल मनोवैज्ञानिक डॉ गीतांजलि शर्मा कहती हैं, इस तरह की गेम्स की एडिक्शन हो जाने के बाद बच्चों में अपने सिबलिंग्स और दोस्तों के प्रति भी वैमनस्य देखा जाता है जो उनके व्यक्तित्व निर्माण को बाधित करता है।
क्या है गेमिंग डिसऑर्डर
लंबे समय तक वीडियो गेम्स खेलने की वजह से बच्चों की नजरें कमजोर तो होती ही है, वहीं फिजिकल एक्टिविटीज कम होने से उनकी मसल्स और हड्डियां भी मजबूत नहीं हो पातीं। वीडियो गेम से उनके व्यवहार में बदलाव आने के कारण वे रियल नहीं वर्चुअल लाइफ में जीना शुरू कर देते हैं। गेम्स की दुनिया को सच मानते हुए बच्चा इसे रियल लाइफ में भी अपनाने की सोचता है। वो रोजमर्रा की जिंदगी में वीडियो गेम के करेक्टर की तरह व्यवहार करने लगते हैं। इससे धीरे-धीरे उनके व्यवहार में गुस्सा और जिद्दीपन आने लग जाता है। बच्चों की जिंदगी में आ रहे इस तरह के बदलाव के कारण ही डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) ने इसे मेंटल हैल्थ कंडीशन में शामिल किया है। डॉक्टर्स के मुताबिक,यह यूनिवर्सल बीमारी है, लेकिन इसे डायग्नोस किया जा सकता है। उसके बाद इलाज संभव है।
2 तरह का होता है गेमिंग एडिक्शन
स्टैण्डर्ड वीडियो गेम्स
एक ही व्यक्ति इसे खेल सकता है। इसमें खिलाड़ी का एक ही गोल और मिशन होता है। इस गेम का एडिक्शन होने पर हाई स्कोर को बीट करते हुए मिशन पूरा करना होता है।
ऑनलाइन एडिक्शन
ये दूसरे लोगों के साथ ऑनलाइन खेला जाता है। ये गेम्स कभी खत्म नहीं होते हैं। अन्य ऑनलाइन प्लेयर्स के साथ रिलेशनशिप बनाते हुए ये प्लेयर्स को सच्चाई से दूर भगाता है।
गेमिंग डिसऑर्डर की समस्या
- गेमिंग डिसऑर्डर की वजह से ब्रेन के न्यूरो ट्रांसमीटर में बदलाव आना शुरू हो जाते हैं। इसी बदलाव से बच्चों के व्यवहार में बदलाव आने लगता है।
- उनमें बार-बार एक ही तरह के विचार और सस्पेक्ट्रम डिसऑर्डर जैसी बीमारियां होना शुरू हो जाती है। हालांकि, इसमें पेरेंटिंग का रोल भी महत्वपूर्ण है।
- साथ ही इन गेम्स की वजह से कई बार बच्चे खुद को ओवर बर्डन या ओवर प्रेशर में महसूस करते हैं।
- वे गुस्सा करने के साथ ही जिद्दी हो जाते हैं। वही नींद में कमी आने से एजुकेशन में भी उनकी परफॉर्मेंस कमजोर होती है।
गेमिंग डिसऑर्डर बचाव का तरीका
मेंटल स्टेट्स एग्जामिनेशन, क्लिनिकल इवैल्यूएशन, साइकोलॉजिकल टैस्ट और ब्रेन इमेजिंग।
इलाज
साइकोथेरेपी, बिहेवियर थेरेपी और दवाइयां।
साइकोथेरेपी : यह एक मनोविज्ञानिक पद्धति है जिसके जरिये मानसिक समस्याओं का समाधान किया जाता है। इसके जरिये रिश्तो में सुधार, नकरात्मक विचारो में बदलाव लाना, व्यवहार में बदलाव, नशे की लत छुड़ाना, तनाव और चिंता आदि से से छुटकारा पाया जा सकता है।
बिहेवियर थरेपी : इसमें इंसान के व्यवहार को बदलने पर जो दिया जाता है। इसके जरिये फ़ोबिया, चिंता या डर का इलाज़ किया जाता है। यह थेरेपी पर्सनालिटी डेवलपमेंट, गुस्से को कंट्रोल करेने, नशे और शराब की लत को छुड़ाने में भी इस्तेमाल की जाती है।
बच्चों को गेम की लत से निकालने पैरेंट्स को बदलना होगी आदत
डिसीप्लीन बट विथ लव के कंसेप्ट पर भी दें ध्यान
पैरेंटिंग एक्सपर्ट अभिषेक पसारी के अनुसार बच्चे को जीवन के पहले 6 साल में प्यार की जरूरत होती है जो कि मां के प्यार से भी पूरी हो सकती है। दूसरे 6 सालों में प्यार और अनुशासन की जरूरत होती है। यह जिम्मेदारी माता-पिता दोनों को साथ में निभाना चाहिए। तीसरे 6 सालों में ‘डिसीप्लीन बट विथ लव” के कंसेप्ट को अपनाते हुए बच्चे की परवरिश करना चाहिए। इसमें माता-पिता को पीछे हटते हुए अपने स्थान पर एक ऐसे मैच्युअर मेंटर बच्चे के साथ रखना होता है जो उसे सही-गलत समझा सके। क्योंकि इस उम्र में बच्चा माता-पिता से नहीं बल्कि दोस्त से बातें साझा करता है। ऐसे में मैंटर को दोस्त की भूमिका निभानी होती है।
बच्चों की पसंद के विषय पर करें चर्चा
यह पैरेंट्स के लिए भी चिंता का विषय है कि वह बच्चे के उन भावों को नहीं समझ सके जो इस तरह के खेल के कारण बच्चे के शारीरिक और मानसिक बर्ताव पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे थे। पैरेंटिंग एक्सपर्ट डॉ. अमित बंग कहते हैं कि इन गेम्स या साइड्स से आप बच्चे को दूर नहीं रख सकते लेकिन उन पर अनुशासित और तार्किक तरीके से अंकुश जरूर लगा सकते हैं।
अकेला महसूस न होने दें बच्चों को
इस तरह के गेम अधिकांशत: वे बच्चे खेलते हैं जो किन्हीं कारणों से खुद को अकेला महसूस करते हैं या किसी कारण से निराश हैं। ऐसे मामले एक-दूसरे को देखकर और भी बढ़ जाते हैं इसलिए अब बच्चों के लिए ज्यादा सतर्क होने की जरूरत है। मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. पवन राठी के अनुसार हानिकारक गेम्स खेलने के दौरान बच्चों के बर्ताव में नकारात्मक परिवर्तन आता है उस पर गौर करें। इसके लिए उनके दोस्त और टीचर्स से मुलाकात करें। पैरेंट्स बच्चों के मन से अपने लिए डर निकालें और उन्हें जीवन के उतार-चढ़ाव से रूबरू कराएं। बच्चों के शरीर पर ध्यान दें कि कहीं उन्होंने खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश तो नहीं की।
फ्रेंडलिस्ट में हो आप भी शामिल
इस तरह के गेम या ऐसे शो जो कि आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं उन पर भी धारा 306 लगती है। जहां तक बात मोबाइल या सोशल साइड्स पर इस तरह के गेम या साइबर क्राइम की है तो इसके लिए अभिभावकों को भी तकनीकी रूप से जागरूक होना होगा। सोशल साइड्स आदि पर बच्चे की फ्रेंड लिस्ट में पैरेंट्स का शामिल होना जरूरी है ताकि वे उनकी गतिविधियों पर नजर रख सकें। – वरूण कपूर, एडीजी नार्कोटेक्स, सायबर क्राइम एक्सपर्ट
तकनीक से रखें तकनीक पर नजर
- गूगल प्ले स्टोर पर जाएं। वहां सेटिंग ऑप्शन में जाकर माय एप्स एंड गेम्स को ओपन करें। इसमें लाइब्रेरी, अपडेट्स और इन्स्टॉल्ड में जाकर ये देखें कि क्या इंस्टॉल और क्या अनस्टॉल हुआ है।
- बच्चे के मोबाइल में भी पैरेंट्स अपना ही मेल आईडी और पासवर्ड दें ताकि बच्चा जब भी कोई गेम, एप आदि इंस्टॉल करे तो या तो वह आपसे पासवर्ड मांगेगा या फिर उसकी जानकारी आपके मेल आईडी में आ जाएगी।
- स्क्रीन रिकॉर्डर सॉफ्टवेयर भी अपलोड कर सकते हैं। इससे लाभ यह होगा कि जो भी वर्क उस मोबाइल पर किया है वह आप भी देख सकेंगे। यह सुविधा कुछ ही समय के लिए उपयोगी होती है पर इसका उपयोग आप समय-समय पर कर सकते हैं।
- बी स्मार्ट एप या एप लॉक जैसी एप्लीकेशन्स को डाउनलोड करके कई गेम्स, एप्लीकेशन आदि को काफी हद तक डाउनलोड होने से रोक सकते हैं।
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